झारखंड की हार: महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जहां बीजेपी की सुनामी में महाविकास आघाडी बह गई, वैसे ही झारखंड चुनाव में जेएमएम सुप्रीमो हेमंत सोरेन की आंधी में बीजेपी भी उड़ गई. इन दोनों राज्यों में बीजेपी की जीत-हार ने बिहार में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बड़ा मैसेज दे दिया है. झारखंड में इंडिया गठबंधन की जीत ने साबित कर दिया कि बिहार में भी ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारे नहीं चलने वाले हैं. क्योंकि, झारखंड और बिहार का मिजाज लगभग एक जैसा ही है. झारखंड में जेएमएम की जीत से नीतीश कुमार भी अंदर ही अंदर खुश हो रहे होंगे कि चलो एक बला टली. क्योंकि, अगर झारखंड में बेजीपी जीतती तो असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का बोलबाल होता. लेकिन, अब तो महाराष्ट्र जीत के बाद भी बीजेपी नेताओं ने बोलना शुरू कर दिया है कि पीएम मोदी के ‘एक हैं तो सेफ हैं’ नारे की वजह से जीत मिली है.
बीजेपी के अंदर पिछले कुछ दिनों से यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा की पॉलिटिक्स धूम मचा रही थी. लेकिन, झारखंड चुनाव में हार के बाद अब शायद इसमें कुछ कमी आएगी. क्योंकि बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में शायद ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारे और ‘घुसपैठिया’ को बांग्लादेश भेजने की बात नहीं होगी. बिहार में नीतीश कुमार की पॉलिटिक्स भी लगभग हेमंत सोरेन की पॉलिटिक्स जैसी ही है.
झारखंड में बीजेपी की हार लेकिन बिहार में एनडीए के लिए खुशी?
हाल के दिनों में जेडीयू नेताओं की बातों से भी लग रहा था कि वह ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे का विरोध नहीं तो समर्थन भी नहीं कर थे. ऐसे में झारखंड में जेएमएम की बंपर जीत के बाद जेडीयू बिहार चुनाव में फ्रंटफुट पर बैटिंग करने का प्रयास करेगी. जेडीयू नेता बीजेपी नेताओं को समझाने की कोशिश करेंगे कि अगर बिहार में भी ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारे की शुरुआत होगी तो इससे गठबंधन को नुकसान हो सकता है. ऐसे में हो सकता है कि झारखंड चुनाव में हार के बाद बीजेपी पहले की तरह नीतीश कुमार को ही ‘बड़ा भाई’ मानकर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़े.
क्यों बिहार-झारखंड का मिजाज एक जैसा?
अब महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव के बाद बीजेपी का सारा फोकस दिल्ली और बिहार चुनाव पर होने वाला है. बिहार विधानसभा चुनाव में भी अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है. ऐसे में जेडीयू जहां नए सिरे से सियासी बिसात बिछाने की कोशिश शुरू करेगी तो बीजेपी की कोशिश रहेगी कि गठबंधन में ऐसा कुछ नहीं किया जाए, जिससे आरजेडी और कांग्रेस को फायदा हो. ऐसे में बिहार की 243 सीटों की गणित को लेकर एनडीए में अभी से ही मंथन का दौर शुरू हो जाएगा.
कितनी सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक?
आपको बता दें कि बिहार की 243 सीटों में से कम से कम 50 सीटें ऐसी हैं, जहां पर राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम समुदाय के उम्मीदवार ही उतारती हैं. एनडीए में शामिल जेडीयू और एलजेपी तकरीबन 45 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारती हैं. ऐसे में अगर बीजेपी ‘बटेंगे तो कटेंगे’ वाला फॉर्मूला बिहार में भी अपनाती है तो इसका खामियाजा गठबंधन दलों को उठाना पड़ेगा. इससे बीजेपी को नुकसान होगा और इंडिया गठबंधन बाजी मार सकता है.
क्या नीतीश कुमार का ही रोल होगा अहम?
बिहार की राजनीति को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर कहते हैं, ‘देखिए इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि अगर बेजीपी जेडीयू के साथ चुनाव लड़ती है तो उसे ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ नारे से परहेज करना होगा. नीतीश कुमार का पुराना रिकॉर्ड कहता है कि वह मुस्लिमों के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते. हालांकि, अब उनकी कितनी चलेगी यह तो समय बताएगा. लेकिन, इसमें कई दो राय नहीं है कि आरजेडी का मुस्लिम वोट बैंक बिहार में जबरदस्त है. इसके बावजूद 25 से 30 प्रतिशत मुस्लिम नीतीश कुमार के नाम पर वोट देते हैं. खासकर पसमांदा मुस्लिमों का वोट साल 2020 चुनाव से पहले तक तकरीबन जेडीयू के साथ रहा है. हालांकि, अब इतना नहीं है. लेकिन, इसके बावजूद अभी भी मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग नीतीश कुमार का चेहरा देखकर वोट करता है. ऐसे में शायद योगी आदित्यनाथ या हिमंता बिस्व सरमा जैसे नेताओं और उनके नारे से बिहार में एनडीए को नुकसान उठाना पड़ सकता है.’
हिमंता और योगी का ‘नारा’ बिहार में नहीं?
आपको बता दें कि बिहार में मुस्लिम सियासत काफी प्रभावी रही है. झारखंड में जो बीजेपी की करारी हार हुई है उसमें भी मुस्लिम वोटरों का बड़ा योगदान है. हेमंत सोरेन को जेल भेजना भी एक कारण है लेकिन, सबसे बड़ा कारण है कि आजसू जैसे सहयोगी दलों को मिलने वाले मुस्लिम वोट इस बार पूरी तरह से छिटक गए. बिहार में तकरीबन 18 से 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है. लालू यादव ने मुस्लिम-यादव का समीकरण बनाकर लंबे समय बिहार में राज किया. लेकिन, साल 2005 में नीतीश कुमार के बिहार की सत्ता में आने के बाद सियासी तस्वीर बदल गई. नीतीश कुमार ने मुस्लिम वोटों में अपना सियासी आधार बढ़ाने के लिए पसमांदा मुस्लिम का दांव चला जो काफी हिट रहा.
साल 2010 और 2015 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम जेडीयू के साथ रहे. लेकिन, 2017 में नीतीश के महागठबंधन से नाता तोड़कर बीजेपी के साथ जाने के बाद मुस्लिम वोट नीतीश से लगभग छिटक गया. 2020 के चुनाव में जेडीयू का ये हाल हो गया कि जेडीयू ने 11 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे जिनमें सभी को हार का मुंह देखना पड़ा था. ऐसे में नीतीश कुमार बीजेपी को बिहार में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ या ‘घुसपैठिया’ वाला मुद्दा उठाने से बचने की सलाह दे सकते हैं.