बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को लेकर बीजेपी ने राज्य में जातीय समीकरण साधने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. बीजेपी ने उत्तर प्रदेश और हरियाणा की तरह बिहार चुनाव में भी गैर-यादव ओबीसी और दलितों को संगठित करने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है. इसके लिए बीजेपी ने 243 विधानसभा क्षेत्रों में अलग-अलग जातियों के सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया है. इस अभियान की शुरुआत 15 मई से हो सकती है. भारतीय जनता पार्टी का यह कदम आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी के बड़े ओबीसी वोट बैंक को तोड़ने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. बीजेपी ने जातीय जनगणना का निर्णय लेकर पहले ही विपक्ष का मुख्य चुनावी मुद्दा छीन लिया है. दूसरी ओर, बीजेपी अपनी पारंपरिक ऊपरी जाति वोट बैंक को बनाए रखते हुए सीएम नीतीश कुमार के अत्यंत पिछड़े वर्ग (ईबीसी) समुदायों में भी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है.
बिहार की जाति सर्वेक्षण के अनुसार 63% आबादी ओबीसी और ईबीसी श्रेणियों से संबंधित है, जिसे बीजेपी आकर्षित करना चाहती है. बीजेपी खासकर कुशवाहा, कुर्मी, यादव और ईबीसी समुदायों को इस रणनीति का हिस्सा बनाना चाहती है. ये समुदाय बिहार की आबादी का 60% हैं, जो वोट बैंक के लिए महत्वपूर्ण हैं. बीजेपी ने हाल ही में मंत्रिमंडल विस्तार में भी जातीय संतुलन साधा है, जिसमें 7 नए मंत्रियों में 3 पिछड़े, 2 अति पिछड़े, और 2 सवर्ण शामिल किए हैं.
कास्ट पॉलिटिक्स से फायदा या नुकसान?
इसके साथ ही बीजेपी महिला वोटरों, खासकर ईबीसी और दलित महिलाओं को योजनाओं के जरिए लुभाने की कोशिश कर रही है. यह नीतीश कुमार के वोट बैंक को तोड़ने का प्रयास हो सकता है. बीजेपी की रणनीति 2025 के चुनाव में सत्ता हासिल करने के लिए एक मास्टरस्ट्रोक हो सकती है. यह विपक्ष के पारंपरिक वोट बैंक को कमजोर करने में मदद करेगी.
बिहार विधानसभा चुनाव 202-बीजेपी की किस वोट बैंक पर है नजर?
बिहार की राजनीति में जाति एक निर्णायक कारक रही है. लालू यादव का मुस्लिम-यादव (एम-वाई) समीकरण और नीतीश कुमार का लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) समीकरण दशकों तक प्रभावी रहा. बीजेपी जो परंपरागत रूप से सवर्ण और शहरी मतदाताओं पर निर्भर रही, अब व्यापक जातीय आधार बनाने के लिए हर विधानसभा क्षेत्र में जाति-आधारित सम्मेलनों का आयोजन कर रही है. यह रणनीति न केवल विपक्ष के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश है, बल्कि हिंदू वोटों के बंटवारे के डर को भी कम करती है.
2020 से 2025 तक कितना बदला बिहार का जातीय समीकरण?
2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 74 सीटें मिली थीं, जिनमें सवर्ण समुदाय का योगदान 45 विधायकों के साथ प्रमुख था. हालांकि, इस बार पार्टी ने कुशवाहा, कुर्मी, यादव और ईबीसी समुदायों को लक्षित किया है, जो बिहार की जनसंख्या का लगभग 60% हिस्सा हैं. उदाहरण के लिए, सम्राट चौधरी (कुशवाहा) को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर और उपेंद्र कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर बीजेपी ने नीतीश के लव-कुश समीकरण को कमजोर करने की कोशिश की है.
जाति जनगणना के फैसले से बीजेपी को मिलेगा लाभ?
2020 के चुनाव में एनडीए को 33% वोट शेयर मिला, जिसमें बीजेपी का हिस्सा 24.4% था, जबकि महागठबंधन को 43% वोट मिले. बीजेपी ने सवर्ण (लगभग 15% आबादी) और कुछ ओबीसी वोटों पर निर्भरता दिखाई. लेकिन 2025 में जातिगत जनगणना के केंद्र सरकार के फैसले ने बीजेपी को एक नया अवसर दिया है. बिहार में यादव (14%), कुर्मी (4%), कुशवाहा (4%), और ईबीसी (36%) की बड़ी आबादी है. बीजेपी ने मंत्रिमंडल विस्तार में भी जातीय संतुलन साधा, जिसमें 7 नए मंत्रियों में 3 पिछड़े, 2 अति पिछड़े, और 2 सवर्ण शामिल किए गए. यह कदम चुनावी रणनीति का हिस्सा है, जिससे सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व मिले.
जातिगत जनगणना का समर्थन कर बीजेपी ने आरजेडी और जेडीयू के प्रमुख चुनावी मुद्दे को कमजोर किया है. इससे महागठबंधन के एम-वाई और लव-कुश समीकरणों में दरार पड़ सकती है. हिंदू वोटों के बंटवारे के डर को कम करने के लिए बीजेपी राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दों को जातीय सम्मेलनों में जोड़ रही है, जिससे सवर्ण और ओबीसी वोटर एकजुट रहें. बीजेपी नीतीश के महिला वोटर आधार (लगभग 50% मतदाता) को भी टारगेट कर रही है, खासकर ईबीसी और दलित महिलाओं को योजनाओं के जरिए लुभाने की कोशिश में है.