रहस्य है 1928 ओलिंपिक में हॉकी के फाइनल से पहले जयपाल सिंह का कप्तानी छोड़ना : 2024

1928 ओलिंपिक : हम जयपाल सिंह मुंडा के उस पहलू की चर्चा करेंगे जिसके कायल हम सभी है. इन दिनों ओलिंपिक खेल भी पेरिस में चल रहा है यह इतिहास है कि एम्सटर्डम में भारत ने ओलिंपिक हॉकी का पहला स्वर्णपदक वर्ष 1928 में जीता था. भारत के आदिवासी नेताओं में मारंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा जैसा बहुआयामी व्यक्तित्व शायद ही दूसरा होगा. एक बौद्धिक अगुआ, आदिवासियत के दर्शन के सबसे बड़े पैरोकार, आंदोलनकारी, राजनेता, शिक्षक और खिलाड़ी. इतनी खूबियों के होते हुए भी वे एक सीधे सरल इंसान थे. उनमें दृढ़ता और बौद्धिकता थी, पर छल-कपट नहीं. अगर होती तो शायद वे झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस के साथ नहीं करते. बहरहाल, यहां हम जयपाल सिंह मुंडा के उस पहलू की चर्चा करेंगे जिसके कायल हम सभी है. और वह है खिलाड़ी के रूप में. इन दिनों ओलिंपिक खेल भी पेरिस में चल रहा है.

भारत ने 1928 ओलिंपिक में हॉकी का पहला स्वर्णपदक में जीता था

यह इतिहास है कि एम्सटर्डम में भारत ने ओलिंपिक हॉकी का पहला स्वर्णपदक वर्ष 1928 ओलिंपिक में जीता था. और उस हॉकी टीम की कप्तानी की थी जयपाल सिंह मुंडा ने. पर फाइनल मैच से पहले ही जयपाल सिंह को कप्तानी छोड़ना पड़ा था. 1928 की वह जीत सिर्फ एक ओलिंपिक पदक मात्र नहीं था बल्कि औपनिवेशिक काल के चरम में इस जीत से रंगभेद और नस्लीय श्रेष्ठता के दंभ को दी गयी चुनौती थी. आजादी की लड़ाई लड़ रहे लोगों में जोश भरा था. इसके बावजूद उनकी इस उपलब्धियों को देश में याद नहीं किया जाता.

मेजर ध्यानचंद और जयपाल सिंह मुंडा समकालीन थे

1928 ओलिंपिक : मेजर ध्यानचंद और जयपाल सिंह मुंडा दोनों ही एक ही दौर के खिलाड़ी थे. दोनों अपने समय में सबसे बेहतरीन थे, पर मेजर ध्यानचंद को देश ने याद रखा है और उनके नाम पर पुरस्कार बांटे जाते हैं. मगर जयपाल सिंह मुंडा को देश ने भुला दिया. एक खिलाड़ी के तौर पर जयपाल सिंह की उपलब्धियों को ज्यादातर लोग नहीं जानते. और न ही उनके नाम पर खेलों के लिए कोई पुरस्कार बांटे जाते हैं. हां कुछ साल पहले झारखंड सरकार ने उनके नाम से जयपाल सिंह मुंडा पारदेशीय छात्रवृति योजना की शुरूआत जरूर की है. जयपाल सिंह मुंडा की उपेक्षा की एक मिसाल तो रांची में उनके नाम पर बना स्टेडियम ही है. 

प्रतिमा पर लगे हॉकी स्टिक की हो चुकी है चोरी

1928 ओलिंपिक : सालों तक खस्ताहाल रहने के बाद जब हाल ही में इसका जीर्णोद्धार किया भी गया तो उनकी प्रतिमा की सुरक्षा नहीं हो पा रही. अब तक दो-तीन बार उनकी प्रतिमा पर लगे हॉकी स्टिक चोरी हो चुकी है.आदिवासियों में खेलों के प्रति एक स्वाभाविक रूझान होता है और इस नाते खेल जयपाल सिंह की रगों में बसा था. रांची में हॉकी की शुरूआत एंग्लिकन कलीसिया के मिशनरियों के आने के बाद से ही शुरू हो गयी थी. संत पॉल्स स्कूल में मिशन से जुड़े अंग्रेज हॉकी खेला करते थे. संत पॉल्स स्कूल में ही पढ़ने के दौरान जयपाल सिंह मुंडा का परिचय हॉकी से हुआ था. नवंबर 1918 में जयपाल संत पॉल्स स्कूल के प्रिंसिपल केनोन कॉसग्रेस के साथ इंग्लैंड के लिए रवाना हुए थे. इंग्लैंड पहुंचने के बाद उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ हॉकी, फुटबॉल, घुड़सवारी, रग्बी जैसे खेलों में हाथ आजमाए. परंतु, इन सबमें उनका पहला प्यार हॉकी ही था. 1928 ओलिंपिक


वे ऑक्सफोर्ड ब्लू पानेवाले पहले भारतीय थे. जयपाल सिंह मुंडा ने हॉकी का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था. जयपाल ने सबसे पहले इंग्लैंड में आइरिश क्लब के लिए हॉकी खेला. अपने पहले ही मैच में उन्होंने गोल किया. इस मैच के बाद के बाद उनका हॉकी का भविष्य उज्जवल हो गया था. 1928 ओलिंपिक

जयपाल सिंह को कप्तानी और खेल दोनों ही छोड़ना पड़ा

1928 ओलिंपिक के लिए भारत से 13 और इंग्लैंड में रहनेवाले तीन-चार भारतीयों को टीम के लिए चुना गया था, जिनमें एक नाम जयपाल सिंह का भी था. वे उन दिनों इंग्लैंड में हॉकी के लिए काफी नाम कमा चुके थे. जयपाल सिंह को यूरोप के वातावरण, वहां के खिलाड़ियों की खासी समझ थी. ओलिंपिक के दौरान भारतीय टीम को इसका काफी फायदा मिला. अपनी ऑटोबायोग्राफी गोल में ध्यानचंद ने लिखा है कि वे उन दिनों ऑक्सफोर्ड टीम के प्रमुख स्तंभ थे और समूचे ब्रिटेन में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी. वे हर दृष्टि से योग्य थे और भारतीय हॉकी टीम के कप्तान के रूप में उनका चयन सर्वथा स्वाभाविक और नैसर्गिक था. ओलिंपिक हॉकी मैचों के दौरान जयपाल सिंह मुंडा की कप्तानी में भारतीय टीम काफी शानदार खेल का प्रदर्शन कर रही थी. पर फाइनल मैच से पहले ही जयपाल सिंह को कप्तानी और खेल दोनों ही छोड़ना पड़ा. 

फाइनल में भारत ने हॉलैंड को 3-0 से हराया था. भारतीय टीम की जीत सुर्खियों में थी. इन सबमें जयपाल सिंह का कहीं कोई नाम नहीं था. खुद जयपाल सिंह ने भी कभी इन बातों का कोई जिक्र नहीं किया कि आखिर जिस हॉकी को खेलने के लिए उन्होंने आइसीएस छोड़ी थी. जिस हॉकी से उन्हें बेइंतहा प्यार था, उन्हें फाइनल मैच से पहले ही टीम क्यों छोड़ना पड़ा. यह एक रहस्य है, जिसे आज तक कभी खोजा नहीं गया और न ही खोजने की जरूरत ही महसूस की गयी.
झारखंड में जयपाल सिंह मुंडा के बाद कई और ओलिंपिक हॉकी खिलाड़ी हुए. इनमें पुरुष टीम में सिलवानुस डुंगडुंग, मनोहर टोपनो जैसे खिलाड़ी रहें तो महिला हॉकी टीम में सलीमा टेटे, निक्की प्रधान ने ओलिंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया है 1928 ओलिंपिक

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